साँझक छह बजे
पशीनासँ तरबतर सात कोस साईकिल चला कए अ०बाबू अपन बेटीक ओहिठाम पहुँचला। हुनक साईकिल केर घंटीक अबाज सुनि नाना-नाना करैत
हुनक सात बर्खक नैत हुनका लग दौरल आएल। अपन पोताक किलोल
सुनि अ०बाबूक समधि सेहो आँगनसँ निकैल दलानपर एला। दुनू समधि आमने सामने-
“नमस्कार समधि।”
“नमस्कार नमस्कार सभ कुशल
मंगल ने।”
“हाँ हाँ सभ कुशल मंगल।”
अपन नैतकेँ झोरा दैत, “लिअ
बौआ आँगनमे राखि आबू, माँछ छैक।”
“अहुँ समधि ई की सभ करए
लगलहुँ।”
“एहिमे करब की भेलै, आबै
काल नहैरमे मराइत देखलिऐ हिलसगर देख मोन भए गेल, धिया-पुता लेल लए लेलहुँ।”
“मुदा समधि अपने तँ बैसनब
छी तहन धियापुताक सिनेह खातीर एतेक कष्ट।”
“एहिमे कष्टक कोन गप्प,
हम नहि खाए छी एकर माने ई नहि ने जे ई खराप छै। हम नहि खाए छी अर्थात तियाग केने
छी, जे खाए छथि हुनकर नीक बेजएक धियान तँ रखहे परत। ओनाहितो अपन मिथिलाक माँछक
महिमासँ के अनभिक छथि।”
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