Sunday, May 6, 2012

रामदेव प्रसाद मण्डल झारूदार- अल्‍लूक चुमौन




नि‍रमली बाजारसँ डेढ़ि‍यापर पहुँचले रही कि‍ दुनमाकाका पुछलनि‍- “झारू, बड़ चलती देखै छि‍यह। कि‍ बात छि‍ऐ?”
गोसाँइ डूमि‍ गेल मुदा अन्‍हार नै भेल रहए। एक तँ, नहेनौ ने रही से खौंत दैत रहए दोसर, चाइनि‍क झमारसँ सेहो पस्‍त रही। वि‍चार रहए जे नहा कऽ कि‍छ खाएब तखने मन असथि‍र हएत। कहलि‍यनि‍- “कक्का, बजारेसँ अबैमे अबेर भऽ गेल। बरियाती जेबाक अछि‍।”
महि‍ना अजमबैत दुनमाकाका कहलनि‍- “केकर?”
कहलि‍यनि‍- “अल्‍लू भायकेँ।”
“ओकरा तँ परोड़ि‍याहीवाली काकी छेबे करै तखैन दोहरा कऽ करत।”
“नामे ले ने छन्‍हि‍। पकि‍ गेलखि‍न कि‍नेे?”
“पकि‍ गेने क्‍यो छोड़ि‍ दइ छै?”
“से कहलि‍यनि‍। मुदा ओ मानैले तैयारे नै छथि‍। कहै छथि‍ जे पुरूखक हड्डी छी कि‍ने। चमड़ा घोकचने कि‍ हेतै। अखनो उसैन खोंइचा सोहि‍ कोबीक महफामे बैसा दि‍अ। तखन जँ उन्नैस भऽ जाएब तब जे कहब मानि‍ लेब।”

No comments:

Post a Comment