Sunday, September 22, 2013

उतरी

147. उतरी

कस्सम कस डिब्बामे समान राखै बला जगहपर बैसल छलै बुधना ।देहपर मात्र उजरा धोरी आ कान्हसँ डाँर धरि पसरल उजरा उतरी बुधनाक उदास मुँहकेँ बेसी उदास बनबै छलै ।पटनामे रिक्शा चला कऽ कनियाँ संग गुजारा करैत छल ।किछु दिन पहिने कनियाँक मोन खराब भेलै आ काल्हि स्वर्गवासी भऽ गेलै ।गंगाक कोरामे लहास राखि अपन गाम दिश चलि देलकै ।बाटमे सोचि रहल छल जे गाम गेलापर दियाद-बाद श्राद्ध करै लेल कहत, भोज लेल तंग करत, खर्चा कतऽसँ एतै ? ।जँ कर्जो लेबै तँ मालिकक गुलाम बनऽ पड़त ।कोनो जोगार कएल जाइ जाहिसँ मरबात पते नै चलै ।सोचैत-सोचैत घामे-पसीने भऽ गेल ।ट्रेनक खिड़कीसँ देखल जे ट्रेन गंगा नदीक उपर छै ।देखिते उपरसँ नीचा आएल आ उतरी खोली गंगामे फेक देलकै ।हाथ झाड़ि अपन जगहपर बैस रहल ।आब निश्चिन्त छल जे आब ओकरा गुलामी नै करऽ पड़तै ।

अमित मिश्र

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