Friday, June 29, 2012

पत्नीभक्त

भोज खएबाक लेल बैसल छलहुँ। पात पर भात, दालि आ दू प्रकारक तीमन आबि गेल छल। बारिक सभ मनोयोग सँ परसि रहल छलाह । एही क्रम मे एक गोट बारिक बजलाह--

" एखन धरि फेकू बाबू नहि पहुँचलाह आछि"।
गप्प सुनतहि रमेश बाबू फरिझौलखिन्ह--
"औताह कोना पत्नी-भक्त छथि ने।घरवालीक पएर जतैत हेताह"।
सुधीर फेकू बाबूक समांग छलखिन्ह, तुरछि कए बजलाह---
पत्नी-भक्त भेनाइ खराप छैक की ?
जबाब दैत रमेश कहलखिन्ह तखन बैसल छी किएक जाउ अहूँ।
एहि बेर सुधीर गप्प के थोड़ेक मोड़ दैत बजलाह-
" त की अहाँक सिद्धान्तक मोताबिक पुरुष पत्नी-भक्त नहि भए वेश्या-भक्त बनि जाए"

1 comment:

  1. लघुकथा ’पत्नीभक्त’ का इंगित स्पष्ट न हो सका. सामाजिक जुटानों में परस्पर वार्तालाप का एक सिरा ऐसे मोड़ पर भी आ गिरता है. लेकिन इसका कोई हेतु स्पष्ट नहीं होता दीखता. इस लघुकथा को कुछ और विशिष्ट किया जा सका था.

    आशीषभाईजी, आपका वैचारिक दायरा व्यापक है. आप इसे विन्दुवत रखेंगे इस सकारात्मक विश्वास के साथ आपके अदम्य उत्साह और सतत प्रयास को मेरा हार्दिक अभिनन्दन.
    बहुत-बहुत बधाई.

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