Thursday, June 28, 2012

नर्क

प्रस्तुत अछि हमर लिखल 62म विहनि कथा जकर शीर्षक छै " नर्क "।


" हे रौ, खा ले पूरा। ऐंठ ने छोड़ "
" ऊँ...ऊँह......नै आब नै खाएल हेतौ हमरासँ। पेट भरि गेलै "
" हे देखही उपरसँ भगवान देखै छथन्हि जे लोक जतेक बेर ऐंठ फेकै छै तकरा नर्कमे जाए पड़ैत छै आ ओहिठाँ ओकरा ओतेक दिन भूखल रहए पड़ैत छै "
" नै हमरा भूख नै छौ "
आ माए ओही छीपीमे अपनो हिस्सा लए खाए लागैए। बच्चा जवान भेलै, हिस्सक वएह मुदा बहन्ना दोसर------
" छोड़ भगवान-तगवानकेँ। ओ कोनो देखै छै। सभ झुट्ठे छै "
आ पिज्जा भरल पेटसँ आधे थारी खा उठि जाइत अछि। कालक्रमे जबान बूढ़ भेल। बेट-पुतहु बाहरे। खाली अपने आ बुढ़िया घरपर। जहिया बुढ़िया बेमार पड़ै तहिया उपासे सन लागै। ओना कहिओ काल देआद सभ सेवा कए दए मुदा ओहो सभ तेरहे -बाइस।
आ उपसे सन एकटा साँझमे बूढ़ाकेँ पड़ोसिया घरसँ सुनाइ पड़लन्हि--- " हे देखही उपरसँ भगवान देखै छथन्हि जे लोक जतेक बेर ऐंठ फेकै छै तकरा नर्कमे जाए पड़ैत छै आ ओहिठाँ ओकरा ओतेक दिन भूखल रहए पड़ैत छै "
आ की ई सुनिते बुढ़बाक रोंआ ठाढ़ भए गेलै। मोन पड़ि गेलै ओकरा अपन माएक गप्प। ठीक इएह तँ कहै छलै। आ सिहरैत-सिहरैत बूढ़ा अपन वर्तमानमे आबि गेलाह आ हिसाब लगाबए लगलाह जे ओ कते दिन कतेक बेर ऐंठ छोड़ने छथि।

1 comment:

  1. अन्न का एक दाना भी कितना मूल्यवान होता है इस पर बेहतर ताना-बाना बुना गया है. संदेशपरक लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई.

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