Wednesday, April 23, 2014

नेनाक छवि


दिनानाथ बाबूक बहरीया बेटा पुतहु अपन १२ बरखक पोती संगे बहुत बरखक बाद कोनो विशेष अबसरपर  गाम एलाह दलानपर, अपन पारम्परिक पोषाकमे  दिनानाथजी हुनक बेटा जीन्स पेंट टीशर्ट पहीर बैशल। ताबतेमे  एकटा बयोवृद्ध, गामक सम्बन्धमे दिनानाथ जीक काकाक आगमन भेलनि हुनका बैसक उचित स्थान देला बाद दिनानाथ जीक पुत्र हुनक पएर छूबैत,  "गोर लगै छी बाबा।"
" खूब नीके रहू।"
"कतए रहै छी?"
"दिल्लीमे "
"हमरा तँ अहाँ सभकेँ देखलो कतेको बरख भए गेल।" कनीक काल चूप रहला बाद, "ब्याह  भए गेल की ?"
प्रश्न बाबा हुनक वस्त्र कि  हुनक नहि बुझाइत बएसकेँ कारण पुछलखिन। अपन चॉकलेटी शरीर ड्रेससँ एखनो २५ बरखसँ बेसीक नहि बुझाई छला।
"सृष्टी, सृष्टी……" बाबाक प्रश्न सुनिते, कोनो उत्तर देबैक  जगह   सृष्टी, सृष्टी केर अबाज दिनानाथजी देलनि। अबाज सुनि आँगनसँ हुनक १२ बरखक चंचल पोती 'सृष्टीदौरते आएल।
दिनानाथजी   सृष्टीसँ बाबा दिस इसरा कए, "बाबाकेँ  गोर लगियौन्ह।"
सृष्टी चट्टे झुकि, बाबाकेँ गोर लागि आशीर्वाद लेलनि। दिनानाथजी, बाबासँ, " हिनक बेटी भेलखीन।"
बाबा, सभ गाममे रहथि तहन ने, हमर नजरिमे तँ एखनो ओहे १८-२० बर्ख पहिने देखल नेनाक छवि बसल अछि। केखन समयक संग जबान भेल, ब्याह भेलै, बेटी सेहो एतेकटा भए गेलै। मुदा हमर सबहक आँखिक छवि……"

कहैत बाबा मौन भ’ गेला।  
*****
जगदानन्द झा 'मनु'

गाछो सभ गाम जाइ छै

लगभग ८०-८५ किमीकेँ  गतिसँ चलैत ट्रेनकेँ बॉगीमे बैसल एकटा पूर्ण परिवार।   ओहिमे सँ एकटा तीन बरखक नेना जेकी शाइद पहिल बेर अपन ज्ञानमे ट्रेनक  यात्रा कए रहल छल   खिड़कीसँ बाहर देखते देरी खुशीसँ चहैक बाजल, "पापा यौ पापा, देखियौ गाछो सभ गाम जाइ छै "    

Tuesday, April 8, 2014

कथोप-कथन

जगदीश प्रसाद मण्‍डल जीक चारि‍ गोट लघु कथाक कथोप-कथन

भोँटक गहमी
मास्‍सैव, ओना पछि‍ला भोँट नीक जकाँ मनो ने अछि‍, मुदा ऐबेर तँ बहुत गहमा-गहमी देखै छि‍ऐ, से की?”
मास्‍सैव, अपन देश जनतंत्र छि‍ऐ, तखनि‍ कि‍ए प्रधानमंत्री के बनत से पहि‍ने लोक गर्द करै लगैए?”
बौआ, अखनि‍ सवाल अबैक समए अछि‍, तँए तोहर सवाल कागतपर लि‍खि‍ कऽ रखि‍ लेलि‍अ। पछाति‍ बुझा देबह।
मास्‍सैव, लाउडस्‍पीकरपर प्रति‍बंध लगि‍ गेल अछि‍, मुदा गाड़ीक-गाड़ी बाजा बाजि‍ रहल अछि‍ से एना कि‍ए अछि‍?”
कि‍ए अछि‍ कि‍ए नै रहत, ई वि‍चारणीय प्रश्न छी। हमर संसद तँ यएह भेल, तोहीं सभ ने काल्हि‍ पटना-दि‍ल्‍ली संसदोमे बैसबहक, कानूनो बनेबहक। आ कानून बना लागुओ करबहक।
आइ भरि‍ प्रश्न रखैक छह, काल्हि‍ सबहक बीच वाद-वि‍वाद करेबह, जँ समए बँचत तँ काल्हि‍ये नै तँ परसू, छुटल-बढ़ल सभ सवालक रस्‍ता बुझा देबह। अखनि‍ एतबे बूझि‍ लैह जे साम्राज्‍यवादी जालमे फँसल जा रहल छी।
भँसैत नाह
यात्री भाय, समधान भऽ जाउ, भऽ सकैए बीचमे कहीं भकमोड़ ने लऽ लि‍अए। अपन-अपन भार अपना-अपना ऊपर रहल। हमर केकरो ने।
जखनि‍ नाहमे सवार भेलौं तखनि‍ ओइ पार गेने बि‍ना नै छोड़ब।
कि‍यो करए आपले माएले ने बापले।
पान पराग
जगरनाथ, पान-पराग सठि‍ गेल अछि‍, दोकानसँ नेने आबह।
अखनि‍ दोकान खुजल हएत कि‍ नै?”
चाहवाली तँ अहूसँ पहि‍ने उठि‍ कऽ दोकान खोलि‍ दइ छै।
दोकानमे पराग कीनि‍, सैति‍ कऽ जीबीमे रखि‍ लीहऽ आ घुमती काल मि‍स्‍त्री सभकेँ देखने अबि‍हऽ जे उठल कि‍ नै।
सभटा झूठ-फूस बजनाहार सभ छी।
भाय, काज तँ सभ करबे करैए कि‍यो मूडसँ करैए कि‍यो भाँज पुड़बैए।
हौ, केकरो सीमा-नांगरि‍ नै छै। ने डाक्‍टरक कहने हएत आ ने नै हएत, होइ छै अपना कि‍रतबे। जँ ओकरा केने हाइतै तँ अपने कि‍ए सि‍गरेट पीब कऽ छाति‍ए जरा लइए?”
बौआ, तूँ नोकर छहक, जा कऽ डाक्‍टर साहैबकेँ कहि‍हनु जे छहटा पान-पराग खर्च अछि‍, से अपन रोजमे सँ लगैए।
मि‍स्‍त्री सभ उठल कि‍ नै?”
बाबा, मि‍स्‍त्री सभ उपराग दइए?”
अहाँ सबहक चाह सेरा कऽ पानि‍ भऽ गेल आ अहाँ सभ ओछाइनो ने छोड़लौं हेन?”
ऐ कोढ़ि‍याकेँ देखै छि‍ऐ, एहेन खेबैया अछि‍ तँ राति‍एमे ओरि‍या कऽ कि‍ए ने रखि‍ लइए?”
कथी‍ रखि‍ लइत?”
अहीले ओछाइन नै छोड़ैए।
डाक्‍टर साहैब, भरि‍ दि‍नमे छहटा पुरि‍या खाइ छी।
केते दि‍नसँ खाइ छह?”
से कि‍ कोनो दि‍न-महि‍नाक लि‍खा-पढ़ी करै छी, भरि‍ दि‍नक कमाइसँ भरि‍ दि‍न जीब लेलौं, तँ ऐसँ बेसीक आशा अनेरे कि‍ए करब। पहि‍ने शि‍खर खाइ छेलौं, रेडि‍यो-अखबार थोड़े पढ़ै छी जे आन ठीनक बात बुझबै, मुदा जइ दि‍न गामेमे एक गोरे शि‍‍खर खाइत-खाइत मरि‍ गेल तइ दि‍नसँ हमहूँ छोड़ि‍ देलि‍ऐ।
देखि‍यौ, जहि‍ना तमाकुलक रंग-रंगक वस्‍तु बना ओकर शक्‍ति‍केँ कम-बेसी कऽ लोककेँ पोलहा-पोलहा खेबाक चहटि‍ लगबैए तहि‍ना तँ चाहो अछि‍ए, तहूमे जँ कौफी फेँटि‍ देलि‍ऐ तँ आरो बेसी रंग चढ़ा दइ छै। तेतबे कि‍ए, एकटा संगी छथि‍ ओ चाहेमे अफीम फेँटि‍ दइ छथि‍। खैर छोड़ू ऐ बातकेँ?”
डाक्‍टर साहैब, अखने कनी पहि‍ने तमाकुलक खि‍धांस रेडि‍योमे सुनलौं...?”
अहाँ तँ रेडि‍योक समाचार कहै छी, सत् बजैए कि‍ फूसि‍ तइ पाछू अनेरे कि‍ए बौआएब। डाक्‍टर बाबा पढ़बै काल तीन दि‍न कहलथि‍ हेन।
बाबा, अहाँक पएर छूबि‍ कहै छी जे आइ दि‍नसँ पान-पराग नै खाएब।
बौआ जगरनाथ, जखने जागी तखने परात। अखनि‍ धरि‍ जे तोहर नि‍श्छल निर्मल जि‍नगी रहलह, ओहने हमरो भेटए, तँए तोड़े सप्‍पत खा, आइसँ पान-पराग छोड़ि‍ देब।
बाबा, अहाँ जे एते कमेलि‍ऐ से अहीले तीनमहला छोड़ि‍ एकमहलमे बुढ़ाड़ी बि‍‍ताएब?”
तीनि‍येँटा कोठरीक मकानमे रहब नीक लागत?”
से ते मनमे हेबे करत, मुदा ओही मनकेँ रबाड़ि‍ पकड़ि‍ अपन जि‍नगीक संग रगड़बै। तहूमे दुइए परानी भेलौं आ तेसर जगरनाथ भेल। अनेरे कम्‍पाउण्‍डर-नर्स इत्‍यादि‍ रखैक कोन जरूरत अछि‍। जे रोगी औत ओकरा देखि‍-सुनि‍ लेबै। तइले बेसी घरक खगते कोन अछि‍। चारूकात छहर देबाल जोड़ि‍ घेरि‍ देबै, अपना रहैक, खाइ-पीबैक आ नहाइ-धोइक घर सहि‍टमे बनल रहत तइसँ कि‍ए आसकति‍ हएत। आसकति‍ तँ ओइठाम होइ छै जैठाम नि‍च्‍चाँ-ऊपर सीढ़ी टपए पड़ै छै।
जँ कहि‍यो बेटा-पुतोहु औता, तखनि‍ ओ सभ केतए रहता?”
ऊपरमे तँ खालीए रहत कि‍ने, अबैए काल वि‍चारि‍ लेता जे केते समए रहैक अछि‍ तइ हि‍साबसँ अपन ओरि‍यान केने औता।
मन-तन खराप हएत, तखनि‍ कि‍ करबै?”
अपनो ने डाक्‍टरो छी। आन रोगीक बात नहि‍योँ बुझबै कि‍एक तँ बहुत बात बहुत रोगी बाजि‍तो ने अछि‍, मुदा अपन देहक पीड़ाक अनुभव तँ अपने हएत। तइ हि‍साबसँ हि‍फाजत केने तँ काज चलि‍ सकैए। तखनि‍ तँ ई देहे काँच-माटि‍क बनल अछि‍, एकर केते बि‍सवास।
बाबा, अपने काजकेँ पछुअबै छि‍ऐ जेतेकाल गप-सप्‍प करबै तेते देरी हएत।
सि‍रमा
बाबा, पुरनाकेँ बदलि‍ दि‍यौ, सभ कि‍छु नवका अनलौं अछि‍।
बाउ मुरारि‍, अपना जनैत तँ नीके जानि‍ अनने छह, तँए बदलबे करब। मुदा...?”
बौआ, जे लूँगी फटि‍ जाइए ओकर सि‍रमो खोल बना लइ छी आ रूमालो बना लइ छी, तँए पाँच तह अछि‍। सालमे एकबेर जुड़शीतल दि‍न खीचि‍ कऽ खोलो सुखा लइ छी आ पेटमे जे देने छी तेकरो रौद लगा लइ छी।
बौआ, जइ दि‍न ई चद्दरि‍ कीनलौं, ओही दि‍न एकटा केसमे सजा भऽ गेल, दुनूक (अपनो आ चद्दरि‍ओक) बीच पहि‍ल भेँट जहलेमे भेल। अखनो मन अछि‍ जे नि‍रदोस चद्दरि‍ संगे जहल कटलक, केना बि‍सरि‍ जेबै?”
बाबा, प्रेम कहलि‍ऐ?”
हँ-हँ, जे सालमे गाहीक गाही कपड़ा कीनत ओ केकरासँ प्रेम करत, प्रेम तँ ओ भेल जे जि‍नगी भरि‍ प्रेमसँ संगे रहल। जीबैतमे जे रहल से तँ रहबे कएल, जे मुइला पछाति‍ओ सि‍रमेमे रखने छी।
बाबा, जखनि‍ चद्दरि‍क इति‍हास-बात कहि‍ए देलि‍ऐ तखनि‍ बँकि‍योहोक कहि‍ए दि‍यौ?”
बौआ, जहि‍एसँ धोती पहि‍रैमे नीक लागए लगल तहि‍एसँ फाटब शुरू भेल। मुदा बात दोसर दि‍स बहकि‍ जाएत।
ईहो कीनने छि‍ऐ?”
नै, ई धोती जहलेमे देने रहए।
बौआ, जि‍ला भरि‍क लोक कोसी नहरि‍ आ पनि‍बि‍जली डैमक संग मैथि‍ली भाषाक मांग करैत जहल गेेलौं। पनरह दि‍न रखलक। सोलहम दि‍न एक-एकटा धोती दऽ वि‍दा केलक, वएह धोती छी।
बाबा, जखनि‍ चद्दरि‍-धोतीक बात कहि‍ए देलि‍ऐ तखनि‍ लूँगीओ-गमछाक कहि‍ दि‍यौ।
बौआ, ईहो जहलेक छी। अपन कीनल लूँगीक सि‍रमाक खोल छी आ जहलक लूँगीकेँ पेटभर देने छि‍ऐ।
बाबा, नवका सि‍रमा नै लेबै?”
हँ हौ, कि‍ए ने लेब मुदा चारूक एक-एकटा कोन काटि‍ नवकाक पेटमे भरि‍ दहक, जाबे जीबैत रहब ताबे माथ टेकने रहब।



Sunday, April 6, 2014

रमण- दरिहरे- बिहारी नाम्ना तिथि चोर


रमण, बिहारी आ दरिहरेक कथा गोष्ठीक तिथि ८२ म सगर राति दीप जरयक तिथि ३१ म इ २०१४ घोषित भेलाक बाद भेल। मुदा ऐ तीनू लग मौलिकताक सर्वथा अभाव अछि। कोनो नव चीज ई लोकनि सोचि नै सकै छथि, हँ प्रतिक्रियावादी, धुरफंदी चीज करबामे ई लोकनि सभसँ आगाँ छथि। से रमण ७९ म कथा गोष्ठी ओरहामे विदेह साहित्य आन्दोलनक खिलाफ गोलैसी करबाक प्रयास केलन्हि, गोष्ठी प्रारम्भ हेबासँ पहिने सायास अही काज लेल पहुँचला, आ बजैतफिरला जे विदेह साहित्य आन्दोलन- तान्दोलन नै छिऐ, खाली गजेन्द्र ठाकुर आ जगदीश प्रसाद मण्डल अपन नाम कर' चाहै छथि, जे उत्तर भेटलन्हि तकर बाद ओ परदाक पाछाँ चलि गेला, जातिवादी बयान देलन्हि, हीरेन्द्र झाक उसकेलासँ अशोक मेहता सेहो ओइ गोष्ठीक बहिष्कार केलन्हि, इच्छा तँ रमणोक रहन्हि बहिष्कार करबाक मुदा हुनकर गाड़ी ड्राइवर समधियौर ल' क' चलि गेलन्हि, से कारण ओ मुन्नाजीकेँ कहलखिन्ह।
शंकरदेव झा बहुत पहिने सूचित केने रहथि जे जे रमण प्रबोध नारायण सिंहकेँ प्रबोध नारायण सिंह एण्ड कम्पनी कहै छला आ सएह आब नचिकेताक बडीगार्ड बनल छथि। ई अवसरवादिता रमणक चरित्रमे छन्हि से जखन ओ दरिहरे आ बिहारीक संग अपन साहित्य अकादेमीक मैथिली विभाग आ ओकरा द्वारा मान्यता प्राप्त फ़र्ज़ी संस्था द्वारा संपोषित कथा गोष्ठीक घोषणा केलन्हि तँ ओ सभ ३१ म इ २०१४ क तिथिये सोचि सकला, तकर दू टा कारण छलै हुनका सभमे मौलिकताक अभाव जे हिनकर सभक रचनामे सेहो दृष्टिगोचर होइत अछि, दोसर घृणित अवसरवादिता आ जातिवादी सोच। दरिहरे कहै छथि जे सगर राति हुनकर दलान अछि, ओइमे सर्वहाराक प्रवेश हुनका लेल कष्टकर छन्हि, बिहारीक कष्ट अही बात ल' क' छन्हि जे पहिने एक दू टा कम्पटीटर छल तँ अस्तित्व जोड़ तोड़सँ बनबैत छला, आब तँ मामले खत्म, रमण कतेक छल-प्रपंचसँ मोहन भारद्वाजकेँ सगर रातिसँ बाहर केलन्हि, मुदा आब नव समीक्षक सभ आबि गेला। से यात्री दिससँ अमर-सुमनकेँ गारि पढ़' बला आ अमर- सुमन दिससँ यात्रीकेँ गारि पढ़ैबला, ई दुनू ब्राहम्णवादी ग्रुप मैथिली साहित्यक विदेह साहित्य आन्दोलनक विरुद्ध मैथिली साहित्यमे जातिवादितापर ऐ घोर संकटक कालमे एक होथि, ई इच्छा राखैत "रमण- बिहारी- दरिहरे" कथा गोष्ठीक घोषणा केलन्हि, मुदा गजेन्द्र ठाकुर, विदेह आदि हुनका डरब' लगलन्हि से ओ एकटा चोरि केलन्हि, तिथिक चोरि, से किछु गोटे तँ कम हेतै जे सगर रातिमे ३१ मइ २०१४ केँ "रमण- दरिहरे- बिहारी" द्वारा घृणा कएल जाएबला गजेन्द्र ठाकुरक गाममे ओइ राति नै जा सकता। बड़ा आएल छथि आन्दोलनी, ब्राह्मणवादी घुरछीमे तेनाने फँसेबनि जे रमण- बिहारी- दरिहरेकेँ मोन रखता। हौ बाबू यएह छी असली विलेन, एकरा ख़त्म करू, विदेह आन्दोलन खतम आ मैथिली साहित्यपरसँ ब्राह्मणवादक पकड़ खतम हेबाक ख़तरा खतम, मैथिली जिबियेकेँ की फ़ायदा जँ अपना सभक वर्चस्व रहबे नै करए,, अखन यात्री ग्रुप, अमर- सुमन ग्रुप नै करू, सभ ऐ संकटमे मिलि जाउ, बादमे झगड़ा करब, नै तँ गजेन्द्र ठाकुर खोप सहित कबूतराय नम: क' देत।
मुदा की गजेन्द्र ठाकुरकेँ खतम केने मैथिली साहित्य आन्दोलन खतम भ' जाएत, की परिवर्तनक धारा जे भयंकर रूपेँ विदेह द्वारा छोड़ि देल गेल छै ओकर अस्तित्व गजेन्द्र ठाकुरसँ अलग नै भ' गेल छै, गजेन्द्र ठाकुरकेँ खतम केलासँ की ओकरा रोकलजा सकत? साहित्य अकादेमीसँ फ़ोन आएल जे ओकर मैथिली विभागमे जे गड़बड़ी भ' रहल छै ओइले साहित्य अकादेमी कोना ज़िम्मेवार अछि? किछु गोटेक फ़ोन आएल जे ओ सभ सगर रातिक अतिरिक्त रमण- दरिहरे- बिहारीक साहित्य अकादेमी संपोषित गोष्ठीमे सेहो जाए चाहै छथि कारण ओ पब्लिक फंडसँ आयोजित होइ छै, आ जँ सगर रातिक तिथि हम बदलि दी रमण- दरिहरे- बिहारी नाम्ना तिथि चोर की करता? आरती कुमारी संग कएल टॅार्चरक बाद रमण- बिहारी- दरिहरेक मोन जे बहसल से किए नै बूझि सकल ऐ परिवर्तनकेँ? मेडियोक्रिटी नै जानि कत' ल' जेतनि तीनूकेँ।