Thursday, May 23, 2013

मौसी

पहिल सखी, “गे दैया ! ई तँ बाँस जकाँ पातर छथि |”

दोसर सखी, “यौ ओझाजी ई केहन देह बनोने छी |”
तेसर सखी, “लगैए माए दूध नहि पीएलकनि |”
चारीम सखी, “हाँ यौ ओझाजी, माए बिशुकि गेल रहथि की |”
पाञ्चम सखी, “नै गै हिनकर माए दूध बेचै छलखिन |”
सभ एक्के संगे, “हा हा हा ......”
नबका ओझाजी, रातिमे व्याह भेलन्हि आ आइ बेरुपहर कनियाँक सखीसभ चारू कातसँ घेर कए हँसी ठिठोली करति | ओझाजी बौक जकाँ सबटा सुनैत |
एकटा सखी फेरसँ, “लगैए हिनकर माए बजहो नहि सिखेलखिन |”
ओझाजी कनीक मुँह उठा कए, “आब एतेक रास मौसी लग कोना बाजू |”
सभ सखी एक्के संगे, “मौसी ! मौसी कोना |”
ओझाजी, “अहाँ सभकेँ हमर माएक सभ गप्प बुझल अछि अर्थात हमर माएक संगी सभ छी तेँ एहि हिसाबे अपने सभ भेलहुँ ने हमर मौसी |”

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