Wednesday, May 29, 2013

आँखिक पानि




“यौ गृहथ बचियाक दुरागमन छैक दू हजार रापैया पैंच दिअ अगहनक कटनीपर आपस कऽ देब |”
“हाँ खगता उत्तर मधुरगर मधुरगर बोल आ काज निकैल गेलापर गृहथ दुश्मन | परसु रमेशराकेँ कहलिऐ कनी दू दिनक बोइनिपर रहि जो, बारी झारी साफ करैक अछि तँ मुँह बना कऽ कहलक, मालिकक ओहिठाम काज कए रहल छी आ एखन मालिक कतए चलि गेला |”
“बीतल बर्ख एहि बचियाक ब्याहपर मालिक दस हजार रुपैयाक मदद केने रहथिन, बिना वापसिक | आब अहीँ कहियौ, हुनकर बोइनि छोरि कऽ कतौ दोसरठाम काज कोना करतै, बोइनि तँ कतौ करहेक छै, तँ हुनकर ओहिठाम किएक नहि | एतबो आँखिमे पानि नहि रखबै तँ मुइला बाद उपर बलाकेँ की मुँह देखेबै |” 
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जगदानन्द झा 'मनु'

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