Friday, May 31, 2013

जादूक छड़ी




चुनाब प्रचारक सभा | जनसमूहक भीर उमरल | नेताजी अपन दुनू हाथकेँ भँजैत माइकमे चिकैर-चिकैर कए भाषण दैत, “आदरणीय भाइ-बहिन आ समस्त काका काकीकेँ प्रणाम, एहि बेर पुनः अपन धरतीक एहि (अपन छाती दिस इशारा कए) लालकेँ भोट दए कऽ जीता दिअ फेर देखू चमत्कार | कोना नै सभक घरमे दुनू साँझ चूल्हा जरऽत | कोना कियो अस्पताल आ डॉक्टरक अभाबमे मरत | हमर दाबा अछि आबै बला पाँच बर्खमे एहि परोपट्टाक गली गलीमे पक्का पीच होएत | युवाकेँ रोजगार भेटत | बुढ़, बिधवा आर्थिक रूपसँ कमजोर वर्गक लोककेँ राजक तरफसँ पेंशन भेटत | भुखमरीक नामो निशान नहि रहत | बस ! एक बेर अपन एहि सेबककेँ जीता दिअ |”
थोपरीक गरगराहटसँ पंडाल हिलए लागल | नेताजी जिन्दाबादक नारासँ एक किलोमीटर दूर धरि हल्ला होबए लागल | भीरमे सँ निकलि एकटा बुढ़ मंचपर आबि, “एहि सभामे उपस्थित सभ गण्यमान आ आदरणीय, नेताजी एकदम ठीक कहैत छथि |”
ततबामे नेताजीक चाटुकार सभ, “वाह–वाह, बाबा केर स्वागत करू |” पाछूसँ दू तीनटा कार्यकर्ता आबि बाबाकेँ मालासँ तोपि देलकनि | बाबा अपन गरदैनसँ माला निकालि कए, “नेताजी एकदम ठीक कहैत छथि | एतेक रास असमान्य कार्य हिनकर अलाबा दोसर कियो कैए नहि सकैत अछि | जे काज ६६ बर्खमे नहि भेल ओ मात्र पाँच बर्खमे भए जाएत किएक की ओ जदुक छड़ी मात्र हिनके लग छनि जे एखने एहि सभामे अबैसँ पहिले भेतलन्हिए |”  
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जगदानन्द झा मनु 

Thursday, May 30, 2013

असली प्रेम ?

विहनि कथा-39
असली प्रेम ?

- चोर-पुलिसक खेल बड भेल सोनी, आब दूरी सहल नै जाइत अछि ।
- हमरो हाल एहने अछि संजय, मुदा कैये की सकै छी ?
- कऽ सकै छी विआह ।ई दूरी घटि कऽ एक बीत भऽ जाएत ।
- बात तँ सत्ते अछि मुदा . . .
- मुदा, मुदा की ? दुनू गोटा अनाथ छी ।किओ रोकनाहर नै अछि तखन प्रश्न-चिन्ह किए ?
- कोनो खास नै अछि बस तोरा, राघव आ रमेशमे हम फरिछा नै पाबि रहल छी जे हम असली प्रेम ककरासँ करैत छी ।तीनू संग नीक सम्बन्ध अछि हमर ।

बुढ़ारीक डर

नेना, “माए बाबीकेँ हमरा सभसंगे भोजन किएक नहि दै छियनि ?”

माए, “बौआ बड्ड बुढ़ भेलाक कारणे हुनका अपन कोठलीसँ निकलैमे दिक्कत होइत छनि तैँ दुवारे हुनकर भोजन हुनके कोठरीमे पठा दै छियनि |”
नेना, “मुदा बाबी तँ दिन कए बारीयोसँ घुमि कऽ आबि जाइ छथि तखन भोजनक समय एतेक किएक नहि चलल हेतैन |”
माए, “एहि गप्प सभपर धियान नहि दियौ, एखन ई सभ अहाँ नहि बुझबै | बुढ़ सभकेँ एनाहिते है छैक |”
नेना, “अच्छा तँ अहुँक बुढ़ भेलापर अहाँक भोजन एनाहिते एसगर अहाँक कोठरीमे पठाएल जाएत |”
अबोध नेनक गप्पक उत्तर तँ माए नहि दए सकलखिन मुदा अगिला दिनसँ बाबीक भोजन सभक संगे होबए लगलन्हि | 

Wednesday, May 29, 2013

महगाइ




परदेश दिल्लीमे | नेना अपन माएसँ, “माए सभक बाबा-बाबी ओकर संगे छथि, हमर बाबा-बाबी हमरा सभक संगे किएक नहि छथि ?”
माए, “बौआ अहाँक बाबा-बाबी अपन गाममे छथि |”
नेना, “तँ हुनका सभकेँ अतए किएक नहि लए अनै छियनि, हमरा मोन होइए हुनका सभ संगे रहि हुनका सभ संगे खेलाइ |”
माए, “देखै छियै एतेक महगाइमे अपने गुजारा नहि भए रहल छै हुनका सभकेँ अनबन्हि तँ हुनकर गुजारा कोना होएत |”
नेना, “ई महगाइ बड्ड खराप चीज छै ने माए ?”
माए, “हाँ बौआ |”
नेना, “ तखन तँ ई एकदिन अहूँ सभकेँ हमरासँ दूर कए देत ?”

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जगदानन्द झा 'मनु'

आँखिक पानि




“यौ गृहथ बचियाक दुरागमन छैक दू हजार रापैया पैंच दिअ अगहनक कटनीपर आपस कऽ देब |”
“हाँ खगता उत्तर मधुरगर मधुरगर बोल आ काज निकैल गेलापर गृहथ दुश्मन | परसु रमेशराकेँ कहलिऐ कनी दू दिनक बोइनिपर रहि जो, बारी झारी साफ करैक अछि तँ मुँह बना कऽ कहलक, मालिकक ओहिठाम काज कए रहल छी आ एखन मालिक कतए चलि गेला |”
“बीतल बर्ख एहि बचियाक ब्याहपर मालिक दस हजार रुपैयाक मदद केने रहथिन, बिना वापसिक | आब अहीँ कहियौ, हुनकर बोइनि छोरि कऽ कतौ दोसरठाम काज कोना करतै, बोइनि तँ कतौ करहेक छै, तँ हुनकर ओहिठाम किएक नहि | एतबो आँखिमे पानि नहि रखबै तँ मुइला बाद उपर बलाकेँ की मुँह देखेबै |” 
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जगदानन्द झा 'मनु'

पाँचमी पास




नेना, “नै हम इसकूल नहि जाएब |”
माए, “किएक”
नेना, “हमरा इसकूल जएक मोन नहि होइए |”
माए, “नै बौआ एना नहि कहैत छै, इसकूल जएब तहने ने पढ़ि लिख कए ज्ञान होएत आ ओकरा बादे जीवन नीकसँ चलत |”
नेना, “बाबू कहियो इसकूल नहि गेला से तँ हुनक जीवन एतेक नीक चलैत छनि आ हम तँ पाँचमी पास भए गेलहुँ |”