Friday, April 6, 2012

माए-बेटाक मनोविज्ञान



बेटा,
गाम आबैक मोन नै होइए। पुतोहुसँ आब झगड़ा नै होइए। 
महीस दूध दऽ रहल अछि...
मुदा टोलबैय्या सभ एहि लेल जड़ि रहल अछि।
...
...
अहाँक माए।

“अएँ यै , अहाँक दूध होइये तँ टोलबैय्या सभ किएक जड़त? आ अहाँ से बुझै कोना छिऐक?” से बूढ़ीसँ पुछलकन्हि लिखिया।
तँ कहलन्हि बूढ़ी- “जे ओ सभ मोने-मोने जड़ैए, से हम सभटा बुझै छिऐ।”

चिट्ठी बेटा लग पहुँचि गेलन्हि।
मुदा बेटाकेँ देखू- “अएँ यौ- हमरा दूध होइये तँ लोक सभ किएक जड़ैए? माए लिखलक अछि।”
पढ़ुआ बजलाह- “टोलबैय्या सभ किएक जड़त? आ अहाँ से बुझै कोना छिऐक, माए ने लिखलन्हि अछि?”
तँ कहलन्हि बेटा- “जे मोने-मोने जड़ैए, से हम सभटा बुझै छिऐ।”

हजार कोस दूर रहि रहल निरक्षर दुनू माए-बेटाक बीचक विचार-तंतुक सादृश्यता!
माएपर कतेक विश्वास छै? माएकेँ बेटापर आ बेटाकेँ माएपर विश्वास छै, दोसरकेँ विश्वास नै हौ तकर कोनो चिन्ता नै।
माए-बेटाक मनोविज्ञान !

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