Thursday, April 5, 2012

राजमोहन झाक विहनि कथा- चलह

हम दुनू गोटे एके ठामसँ एके गन्तव्य लेल संगहि निकललहुँ। रिक्शापर दुनू गोटेक सामान लदायल आ दुनू गोटे दुनू दिससँ बैसि रहलहुँ। रिक्शावलाकेँ कहलिऐ- चलह। पानि खूब बरिसल रहै आ एखनो बुन्नाबुन्नी एकदम्मसँ बन्द नहि भेल रहै। आकाश कने फाटल रहै एक दिससँ, मुदा कखन फेर तड़तड़ा देत से कहल नहि जा सकैत छल, कारण जे कारी घटाटोप माथपर कयनहि छल।

सैह भेल। आगाँमे प्लास्टिकक ओहार लगौने, सड़कपर लागल पानिकेँ दूर धरि चिरैत, हिचकोला खाइत रिक्शा बढ़ैत जा रहल छल कि बड़का-बड़का बुन्न पड़ऽ लागल। ता पाछाँसँ भड़भड़ करैत एक टा खाली टेम्पो समानान्तर आयल। ओ ओकरा रोकबौलनि, जल्दीसँ अपन एक-दू टा सामान हाथमे लेलनि; आ शेष अपन सामान रिक्शावलाकेँ आनऽ कहैत टेम्पोमे जा बैसलाह। रिक्शावला हुनक बाकी सामान दऽ अयलनि। ओ हुर्र भऽ गेलाह। हमर रिक्शावला घुरि कऽ आयल। कहलिऐ- चलह।

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