Wednesday, April 4, 2012

लक्ष्मी

परिछन-----------भगवती गीत---------हास-परिहासक गीत। बच्चा सभ अनेरो औना रहल छल। दरवज्जा पर धमगज्जर मचल। तुमुल हास-ध्वनि। नाना प्रकारक गप्प-सरक्का। बरक बाप कन्याक बापसँ कहलथिन्ह----" आह बूझि लिअ समधि जे हमरा घरमे लक्ष्मी देलहुँ अहाँ----। कन्याक बाप कहलखिन्ह " हँ से तँ ठीके" आ कहिते आँखि झुकि गेलन्हि आ मोने-मोन बजलथि--" एखन तँ लाखक-लाख टका संगमे अनलीहए ने लक्ष्मी तँ बुझेबे करतीह। जखन खत्म भए जाएत तखन इएह लक्ष्मी कुलच्छनी बनि जाएत।"------

1 comment:

  1. भाई आशीष अन्चिन्हारजी, कथा पर मैथिली में प्रतिक्रिया न कर पाने हार्दिक अफ़सोस है. कारण मैं साझा कर चुका हूँ. इस क्रम में आपसे मिली उदार अनुमति ने मुझे और दुस्साहसी बना दिया है.

    घटना क्रम में विवाह का वातावरण अति कुशलता से चित्रित हुआ है. धिया-पुता का अनेरिये औनाना और धमगज्जर का मच जाना सुखद लगा है. वाह-वाह !
    यह तो हुआ वातावरण का वर्णन. अब कथ्य पर.
    बर के पिता ने कन्या के पिता से जब इतनी महीनी और मान के साथ कन्या को लेकर सकारात्मकता जतायी तो बिना पार्श्व या नेपथ्य की समीचीन घटनाओं के इंगित के कन्या के पिता को नकारात्मक वैचारिकता से भरा क्यों दर्शाया गया है ?
    समाज के प्रतिष्ठितों के मन में व्याप्त वैचारिक कोढ़ पर आपका संकेत अत्यंत सटीक प्रहार करता यदि इस संकेत हेतु एक सुगढ़ ताना-बाना यथोचित घटना के साथ बुना गया होता. यहाँ प्रस्तुत कथ्य कन्या के पिता को दुर्भावनाओं से भरा बता रहा है. जो कि इस कथा का हेतु कत्तई नहीं है.
    बावज़ूद इसके आपके भीतर का लेखक यथोचित विश्वास के साथ कथा को उठाता है.
    विश्वास है, मेरी टिप्पणी से निस्सृत सुभावनाओं को आप अपने हृदय से स्वीकारेंगे. इस सुप्रयास पर हार्दिक बधाई कह रहा हूँ.

    हार्दिक शुभेच्छाएँ

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